
हज के मसाइल
हज नाम है एहराम बाँध कर नवीं जिलहिज्जा को अरफात में ठहरने और कअबा शरीफ के तवाफ का, और उसके लिये एक खास वक़्त मुर्कार है कि उसमें यह अफ़आ़ल (काम) किये जायें तो हज है। सन 9 हिजरी में फर्ज़ हुआ उसकी फर्ज़ियत क़तई है जो उसकी फ़र्जि़यत का इन्कार करे काफिर है मगर उम्र में सिर्फ एक बार फर्ज़ है।
(आलमगीरी, स. 139 दुर्रे मुख्तार)
मसला :- दिखावे के लिये हज करना और माले हराम से हज को जाना हराम है। हज को जाने के लिये जिससे इजाजत लेना वाजिब है बगैर उसकी इजाजत के जाना मकरूह है।मसलन माँ-बाप अगर उसकी खिदमत के मोहताज हों और माँ बाप न हों तो दादा-दादी का भी यही हुक्म है यह हज्जे फर्ज का हुक्म है और हज्जे नफ़्ल हो तो मुतलकन वालिदैन की इताअत करे।
(रद्दुल मुहतार स. 140)

मसअला :- लड़का खुबसूरत अमरद हो तो जब तक दाढ़ी न निकले बाप उसे मना कर सकता है।
(दुर्रे मुख़्तार)
मसअला :- जब हज के लिए जाने पर कुदरत हो हज फौरन फर्ज़ हो गया यअनी उसी साल में और अब देर करना गुनाह है और कुछ बर्षों तक न किया तो फासिक है और उसकी गवाही मरदूद मगर जब करेगा अदा ही है कज़ा नहीं।
(दुर्रे मुख़्तार स. 140)

मसअला :- माल मौजूद था और हज न किया फिर वह माल तल्फ (बर्बाद) हो गया तो कर्ज लेकर जाये अगर्चे जानता हो कि यह कर्ज अदा न होगा मगर नियत यह हो कि अल्लाह तआला कुदरत देगा तो अदा कर दूँगा फिर अगर अदा न हो सका और नियत अदा की थी तो उम्मीद है कि मौला तआला उस पर पकड़ न फरमाये।
(दुर्रे मुख्तार)

मसअला :- हज का वक्त शव्वाल से दसवीं जिलंहिज्जा तक है कि उससे पेश्तर हज के अफआल नहीं हो सकते सिवा एहराम के कि एहराम उससे पहले भी हो सकता है अगर्चे मकरूह है।
(दुर्रे मुख्तार)
